सलोकु मः ३ ॥
गुर सेवा ते सुखु ऊपजै फिरि दुखु न लगै आइ ॥ जमणु मरणा मिटि गइआ कालै का किछु न बसाइ ॥ हरि सेती मनु रवि रहिआ सचे रहिआ समाइ ॥ नानक हउ बलिहारी तिंन कउ जो चलनि सतिगुर भाइ ॥१॥
मः ३ ॥ बिनु सबदै सुधु न होवई जे अनेक करै सीगार ॥ पिर की सार न जाणई दूजै भाइ पिआरु ॥ सा कुसुध सा कुलखणी नानक नारी विचि कुनारि ॥२॥
पउड़ी ॥ हरि हरि अपणी दइआ करि हरि बोली बैणी ॥ हरि नामु धिआई हरि उचरा हरि लाहा लैणी ॥ जो जपदे हरि हरि दिनसु राति तिन हउ कुरबैणी ॥ जिना सतिगुरु मेरा पिआरा अराधिआ तिन जन देखा नैणी ॥ हउ वारिआ अपणे गुरू कउ जिनि मेरा हरि सजणु मेलिआ सैणी ॥२४॥ {पन्ना 651-652}
अर्थ: सतिगुरू की सेवा से मनुष्य को सुख प्राप्त होता है, फिर कभी कलेश नहीं होता, उसका जनम-मरण समाप्त हो जाता है और जमकाल का कुछ जोर (वश) नहीं चलता; हरी से उसका मन मिला रहता है और वह सच्चे में समाया रहता है।
हे नानक! मैं उनसे सदके जाता हूँ, जो सतिगुरू के प्यार में चलते हैं।1।
सतिगुरू के शबद के बिना (जीव-स्त्री) चाहे बेअंत श्रृंगार करे शुद्ध नहीं हो सकती, (क्योंकि) वह पति की कद्र नहीं जानती और उसकी माया में सुरति होती है। हे नानक! ऐसी जीव-स्त्री मन की खोटी और बुरे लक्षणों वाली होती है और नारियों में वह बुरी नारि (कहलाती) है।2।
हे हरी! अपनी मेहर कर, मैं तेरी बाणी (भाव, तेरा यश) उचारूँ, हरी का नाम सिमरूँ, हरी का नाम उच्चारण करूँ और यही लाभ कमाऊँ।
मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ, जो दिन रात हरी का नाम जपते हैं, उनको मैं अपनी आँखों से देखूँ जो प्यारे सतिगुरू की सेवा करते हैं।
मैं अपने सतिगुरू से सदके हूँ, जिसने मुझे प्यारा सज्जन प्रभू साथी मिला दिया है।24।