बिलावलु महला ५ ॥
बिनु हरि कामि न आवत हे ॥ जा सिउ राचि माचि तुम्ह लागे ओह मोहनी मोहावत हे ॥१॥ रहाउ ॥ कनिक कामिनी सेज सोहनी छोडि खिनै महि जावत हे ॥ उरझि रहिओ इंद्री रस प्रेरिओ बिखै ठगउरी खावत हे ॥१॥ त्रिण को मंदरु साजि सवारिओ पावकु तलै जरावत हे ॥ ऐसे गड़ महि ऐठि हठीलो फूलि फूलि किआ पावत हे ॥२॥ पंच दूत मूड परि ठाढे केस गहे फेरावत हे ॥ द्रिसटि न आवहि अंध अगिआनी सोइ रहिओ मद मावत हे ॥३॥ जालु पसारि चोग बिसथारी पंखी जिउ फाहावत हे ॥ कहु नानक बंधन काटन कउ मै सतिगुरु पुरखु धिआवत हे ॥४॥२॥८८॥ {पन्ना 821-822}
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम के बिना (कोई और चीज तेरे आत्मिक जीवन के) काम नहीं आ सकती। जिस मन-मोहनी माया के साथ तू रचा-मिचा रहता है, वह तो तुझे ठॅग रही है।1। रहाउ।
हे भाई! सोना (धन-पदार्थ), स्त्री की सुंदर सेज- ये तो एक छिन में छोड़ के मनुष्य यहाँ से चल पड़ता है। काम-वासना के स्वादों से प्रेरित हुआ तू काम-वासना में फंसा पड़ा है, और विषौ-विकारों की ठॅग-बूटी खा रहा है (जिसके कारण तू आत्मिक जीवन की ओर से बेहोश पड़ा है)।1।
हे भाई! तीलियों का घर बना-सँवार के तू उसके नीचे आग जला रहा है (इस शरीर में कामादिक विकारों के शोले भड़का के आत्मिक जीवन को राख किए जा रहा है। विकारों में जल रहे) इस शरीर-किले में अकड़ के जिद्दी हुआ बैठा तू गुमान कर-कर के हासिल तो कुछ भी नहीं कर रहा।2।
हे अंधे-अज्ञानी! कामादिक पाँचों वैरी तेरे सिर पर खड़े हुए तुझे ज़लील कर रहे हैं, पर तुझे वे दिखाई नहीं देते, तू विकारों के नशे में मस्त हो के आत्मिक जीवन की ओर से बेफिक्र हुआ पड़ा है।3।
हे भाई! जैसे किसी पंछी को पकड़ने के लिए जाल बिखरा के उसके ऊपर दाने बिखेरे जाते हैं, वैसे ही तू ( भी दुनिया के पदार्थों की चोग के चक्कर में) फस रहा है। हे नानक! कह- (हे भाई!) माया के बँधनों को काटने के लिए मैं तो गुरू महापुरुख को अपने हृदय में बसा रहा हूँ।4।2।88।
नोट: चउपदे समाप्त हुए। आगे दुपदे आरम्भ होते हैं।