बिलावलु महला ५ ॥
दोवै थाव रखे गुर सूरे ॥ हलत पलत पारब्रहमि सवारे कारज होए सगले पूरे ॥१॥ रहाउ ॥ हरि हरि नामु जपत सुख सहजे मजनु होवत साधू धूरे ॥ आवण जाण रहे थिति पाई जनम मरण के मिटे बिसूरे ॥१॥ भ्रम भै तरे छुटे भै जम के घटि घटि एकु रहिआ भरपूरे ॥ नानक सरणि परिओ दुख भंजन अंतरि बाहरि पेखि हजूरे ॥२॥२२॥१०८॥ {पन्ना 825}
अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपते हैं) सूरमा गुरू (उसका ये लोक और परलोक) दोनों ही (बिगड़ने से) बचा लेता है। परमात्मा ने (सदा ही ऐसे मनुष्य के) यह लोक और परलोक सुंदर बना दिए, उस मनुष्य के सारे ही काम सफल हो जाते हैं1। रहाउ।
(हे भाई! जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर) परमात्मा का नाम जपने से आनंद प्राप्त होता है, आत्मिक अडोलता में टिके रहा जाता है, गुरू के चरणों की धूड़ का स्नान प्राप्त होता है, जनम मरण के चक्कर समाप्त हो जाते हैं, (प्रभू चरणों में) टिकाव प्राप्त होता है, जनम से मरने तक के सारे चिंता-फिक्र समाप्त हो जाते हैं।1।
हे नानक! (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर हरी-नाम जपता है, वह संसार-समुंद्र के सारे) डरों-भ्रमों से पार लांघ जाता है, जमदूतों के बारे में भी उसके डर समाप्त हो जाते हैं, उस मनुष्य को परमात्मा हरेक शरीर में व्यापक दिखता है, वह मनुष्य सारे दुखों के नाश करने वाले प्रभू की शरण पड़ा रहता है, और अंदर-बाहर हर जगह प्रभू को अपने अंग-संग बसता देखता है।2।22।108।