जैतसरी महला ५ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
कोई जानै कवनु ईहा जगि मीतु ॥ जिसु होइ क्रिपालु सोई बिधि बूझै ता की निरमल रीति ॥१॥ रहाउ ॥ मात पिता बनिता सुत बंधप इसट मीत अरु भाई ॥ पूरब जनम के मिले संजोगी अंतहि को न सहाई ॥१॥ मुकति माल कनिक लाल हीरा मन रंजन की माइआ ॥ हा हा करत बिहानी अवधहि ता महि संतोखु न पाइआ ॥२॥ हसति रथ अस्व पवन तेज धणी भूमन चतुरांगा ॥ संगि न चालिओ इन महि कछूऐ ऊठि सिधाइओ नांगा ॥३॥ हरि के संत प्रिअ प्रीतम प्रभ के ता कै हरि हरि गाईऐ ॥ नानक ईहा सुखु आगै मुख ऊजल संगि संतन कै पाईऐ ॥४॥१॥ {पन्ना 700}
अर्थ: हे भाई! कोई विरला मनुष्य जानता है (कि) यहाँ जगत में (असली) मित्र कौन है। जिस मनुष्य पर (परमात्मा) दयावान होता है, वही मनुष्य इस बात को समझता है, (फिर) उस मनुष्य की जीवन-जुगति पवित्र हो जाती है।1। रहाउ।
हे भाई! माता-पिता, स्त्री, पुत्र, रिश्तेदार, प्यारे मित्र और भाई – ये सारे पहले जन्मों के संयोगों के कारण (यहाँ) आ मिले हैं। आखिरी वक्त पर इनमें से कोई भी साथी नहीं बनता।1।
हे भाई! मोतियों की माला, सोना, लाल, हीरे, मन को खुश करने वाली माया- इनमें (लगने से) सारी उम्र ‘हाय हाय’ करते हुए गुजर जाती है, मन नहीं भरता।2।
हे भाई! हाथी, रथ, हवा के वेग समान तेज दौड़ने वाले घोड़े (हों), धनाढ हो, जमीन का मालिक हो, चारों किस्म की फौज का मालिक हो – इनमें से कोई (भी) चीज साथ नहीं जाती, (इनका मालिक मनुष्य यहाँ से) नंगा ही उठ के चल पड़ता है।3।
हे नानक! परमात्मा के संत जन परमात्मा के प्यारे होते हैं, उनकी संगति में परमात्मा की सिफत सालाह करनी चाहिए। इस लोक में सुख मिलता है, परलोक में सुख-रू हो जाते हैं। (पर ये दाति) संत-जनों की संगति में ही मिलती है।4।1।