सोरठि महला ५ घरु २ ॥
मात गरभ महि आपन सिमरनु दे तह तुम राखनहारे ॥ पावक सागर अथाह लहरि महि तारहु तारनहारे ॥१॥ माधौ तू ठाकुरु सिरि मोरा ॥ ईहा ऊहा तुहारो धोरा ॥ रहाउ ॥ कीते कउ मेरै समानै करणहारु त्रिणु जानै ॥ तू दाता मागन कउ सगली दानु देहि प्रभ भानै ॥२॥ खिन महि अवरु खिनै महि अवरा अचरज चलत तुमारे ॥ रूड़ो गूड़ो गहिर ग्मभीरो ऊचौ अगम अपारे ॥३॥ साधसंगि जउ तुमहि मिलाइओ तउ सुनी तुमारी बाणी ॥ अनदु भइआ पेखत ही नानक प्रताप पुरख निरबाणी ॥४॥७॥१८॥ {पन्ना 613}
अर्थ: हे प्रभू! तू मेरे सिर पर रखवाला है इस लोक में, परलोक में मुझे तेरा ही आसरा है। रहाउ।
हे (संसार समुंद्र से) पार लंघा सकने की समर्था रखने वाले! माँ के पेट में हमें अपना सिमरन दे के वहाँ हमारी रक्षा करने वाला है। (विकारों की) आग के समुंद्र में गहरी लहरों में गिरे हुए को भी मुझे पार लंघा ले।1।
हे प्रभू! तेरे पैदा किए पदार्थों को (ये जीव) मेरु पर्वत समान समझते हैं, पर तुझे, जो तू सब को पैदा करने वाला है, को एक तीले समान समझते हैं। हे प्रभू! तू सबको दातें देने वाला है, सारी दुनिया तेरे ही दर से माँगने वाली है, तू अपनी रजा में सबको दान देता है।2।
हे प्रभू! तेरे करिश्में हैरान कर देने वाले हैं, एक छिन में तू कुछ का कुछ बना देता है। हे अपहुँच! हे बेअंत! तू सबसे ऊँचा है, तू सुंदर है, तू बड़े जिगरे वाला है, तू सारे संसार में गुप्त बस रहा है।3।
हे नानक! (कह–) हे सर्व-व्यापक प्रभू! जब तू खुद ही (किसी जीव को) साध-संगति में मिलाता है, तब वह तेरी सिफत सालाह की बाणी सुनता है। (हे भाई!) वासना-रहित सर्व-व्यापक प्रभू का प्रताप देख के तब उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा होता है।4।7।18।