सलोकु मः ३ ॥
मनहठि किनै न पाइओ सभ थके करम कमाइ ॥ मनहठि भेख करि भरमदे दुखु पाइआ दूजै भाइ ॥ रिधि सिधि सभु मोहु है नामु न वसै मनि आइ ॥ गुर सेवा ते मनु निरमलु होवै अगिआनु अंधेरा जाइ ॥ नामु रतनु घरि परगटु होआ नानक सहजि समाइ ॥१॥ मः ३ ॥ सबदै सादु न आइओ नामि न लगो पिआरु ॥ रसना फिका बोलणा नित नित होइ खुआरु ॥ नानक किरति पइऐ कमावणा कोइ न मेटणहारु ॥२॥ पउड़ी ॥ धनु धनु सत पुरखु सतिगुरू हमारा जितु मिलिऐ हम कउ सांति आई ॥ धनु धनु सत पुरखु सतिगुरू हमारा जितु मिलिऐ हम हरि भगति पाई ॥ धनु धनु हरि भगतु सतिगुरू हमारा जिस की सेवा ते हम हरि नामि लिव लाई ॥ धनु धनु हरि गिआनी सतिगुरू हमारा जिनि वैरी मित्रु हम कउ सभ सम द्रिसटि दिखाई ॥ धनु धनु सतिगुरू मित्रु हमारा जिनि हरि नाम सिउ हमारी प्रीति बणाई ॥१९॥ {पन्ना 593}
अर्थ: किसी भी मनुष्य ने मन के हठ से ईश्वर को नहीं पाया, सारे जीव (भाव, कई मनुष्य) (हठ से) कर्म करके थक गए हैं; मन के हठ से (कई तरह के) भेख कर करके भटकते हैं और माया के मोह में दुख उठाते हैं।
रिद्धियां और सिद्धियां भी निरोल मोह (रूप) हैं, (इनसे) हरी का नाम हृदय में नहीं बस सकता।
सतिगुरू की सेवा से ही मन साफ होता है और अज्ञान (रूप) अंधकार दूर होता है, हे नानक! नाम (रूप) रत्न हृदय में प्रत्यक्ष हो जाता है और सहज अवस्था में (भाव सहज ही नाम जपने वाली दशा में) मनुष्य लीन हो जाता है।1।
जिस मनुष्य को सतिगुरू के शबद में रस नहीं आता, नाम में जिसका प्यार नहीं जुड़ा, वह मनुष्य जीभ से फीके वचन ही बोलता है और सदा ख्वार होता है; (पर) हे नानक! (उस के भी क्या वश?) (पिछले किए कर्मों के) उकरे हुए (संस्कारों के) अनुसार उसको (अब भी वैसा ही) कर्म करना पड़ता है; कोई मनुष्य (उसके संस्कारों को) मिटा नहीं सकता।2।
हमारा सतपुरुख सतिगुरू धन्य है, जिसके मिलने से हमारे हृदय में ठंड पड़ी है, और जिसके मिलने से हमें परमात्मा की भक्ति मिली है।
हरी का भक्त हमारा सतिगुरू धन्य है, जिसकी सेवा करके हमने हरी के नाम में बिरती जोड़ी है; हरी के ज्ञान वाला हमारा सतिगुरू धन्य है जिसने वैरी क्या और सज्जन क्या- सबकी ओर हमें एकता की नजर (से देखने की जाच) सिखाई है। हमारा सज्जन सतिगुरू धन्य है, जिसने हरी के नाम से हमारा प्यार बना दिया है।19।