सूही महला ५ ॥
गुर अपुने ऊपरि बलि जाईऐ ॥ आठ पहर हरि हरि जसु गाईऐ ॥१॥ सिमरउ सो प्रभु अपना सुआमी ॥ सगल घटा का अंतरजामी ॥१॥ रहाउ ॥ चरण कमल सिउ लागी प्रीति ॥ साची पूरन निरमल रीति ॥२॥ संत प्रसादि वसै मन माही ॥ जनम जनम के किलविख जाही ॥३॥ करि किरपा प्रभ दीन दइआला ॥ नानकु मागै संत रवाला ॥४॥१७॥२३॥ {पन्ना 741}
अर्थ: हे भाई! (गुरू की कृपा से) मैं अपना वह मालिक प्रभू सिमरता हूँ, जो सब जीवों के दिल की जानने वाला है।1। रहाउ।
हे भाई! अपने गुरू पर से (सदा) कुर्बान होना चाहिए (गुरू की) शरण पड़ कर अपने अंदर से स्वै-भाव मिटा देना चाहिए, (क्योंकि, गुरू की कृपा से ही) आठों पहर परमात्मा का सिफत सालाह का गीत गाया जा सकता है।1।
हे भाई! (गुरू की कृपा से ही) परमात्मा के सुंदर चरणों से प्यार बनता है। (गुरू चरणों की प्रीति ही) अटल सम्पूर्ण और पवित्र जीवन-जुगति है।2।
हे भाई! गुरू की कृपा से (परमात्मा जिस मनुष्य के) मन में आ बसता है (उस मनुष्य के) अनेकों जन्मों के पाप दूर हो जाते हैं।3।
हे निमाणों पर दया करने वाले प्रभू! (अपने दास नानक पर) कृपा कर। (तेरा दास) नानक (तेरे दर से) गुरू के चरणों की धूल माँगता हूँ।4।17।23।