सलोक मः २ ॥
किस ही कोई कोइ मंञु निमाणी इकु तू ॥ किउ न मरीजै रोइ जा लगु चिति न आवही ॥१॥ मः २ ॥ जां सुखु ता सहु राविओ दुखि भी सम्हालिओइ ॥ नानकु कहै सिआणीए इउ कंत मिलावा होइ ॥२॥ पउड़ी ॥ हउ किआ सालाही किरम जंतु वडी तेरी वडिआई ॥ तू अगम दइआलु अगमु है आपि लैहि मिलाई ॥ मै तुझ बिनु बेली को नही तू अंति सखाई ॥ जो तेरी सरणागती तिन लैहि छडाई ॥ नानक वेपरवाहु है तिसु तिलु न तमाई ॥२०॥१॥ {पन्ना 791-792}
अर्थ: (हे प्रभू!) किसी का कोई (मिथा हुआ) आसरा है, किसी का कोई आसरा है, मुझ निमाणी का एक तू ही है। जब तक तू मेरे चिक्त में ना बसे, क्यों ना रो रो के मरूँ? (तुझे बिसार के दुखों में ही तो खपना है)।1।
अगर सुख है तो भी पति-प्रभू को याद करें, दुख में भी मालिक को चेते रखें, तो, नानक कहता है, हे समझदार जीव-स्त्री! इस तरह पति से मेल होता है।2।
हे प्रभू! मैं एक कीड़ा सा हूँ, तेरी महिमा बहुत अपार है, मैं तेरे क्या-क्या गुण बयान करूँ? तू बड़ा दयालु हैं, अपहुँच है तू खुद ही अपने साथ मिलाता है। मुझे तेरे बिना और कोई बेली नहीं दिखता, आखिर तू ही साथी हो के पुकारता है, जो जो जीव तेरी शरण आते हैं उनको (तू अहंकार के चक्करों से) बचा लेता है।
हे नानक! प्रभू स्वयं बेमुहताज है, उसको रक्ती भर भी कोई लालच नहीं है।20।1।