सलोकु ॥
देह अंधारी अंध सुंञी नाम विहूणीआ ॥ नानक सफल जनमु जै घटि वुठा सचु धणी ॥१॥छंतु ॥ तिन खंनीऐ वंञां जिन मेरा हरि प्रभु डीठा राम ॥ जन चाखि अघाणे हरि हरि अम्रितु मीठा राम ॥ हरि मनहि मीठा प्रभू तूठा अमिउ वूठा सुख भए ॥ दुख नास भरम बिनास तन ते जपि जगदीस ईसह जै जए ॥ मोह रहत बिकार थाके पंच ते संगु तूटा ॥ कहु नानक तिन खंनीऐ वंञा जिन घटि मेरा हरि प्रभु वूठा ॥३॥
अर्थ: हे भाई! जो शरीर परमात्मा के नाम से वंचित रहता है, वह माया के मोह के अंधेरे में अंधा हुआ रहता है। हे नानक! उस मनुष्य का जीवन कामयाब है जिसके दिल में सदा कायम रहने वाला मालिक-प्रभु आ बसता है।1।
छंतु। मैं उन मनुष्यों पर से सदा सदके कुर्बान जाता हूँ जिन्होंने मेरे हरि-प्रभु के दर्शन कर लिए हैं। वे मनुष्य (परमात्मा का नाम-रस) चख के (दुनियावी पदार्थों की ओर से) तृप्त हो जाते हैं, उनको आत्मिक जीवन देने वाला परमात्मा का नाम-जल मीठा लगता है। परमात्मा उनके मन को भाता है, परमात्मा उन पर प्रसन्न हो जाता है, उनके अंदर आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल आ बसता है, उनको सारे आनंद प्राप्त हो जाते हैं। जगत के मालिक प्रभु की जै-जैकार कह कह के उनके शरीर से दुख व भ्रम दूर हो जाते हैं। वे मनुष्य मोह से रहित हो जाते हैं, उनके अंदर से विकार समाप्त हो जाते हैं, कामादिक पाँचों से उनका साथ टूट जाता है।
हे नानक! कह: जिस मनुष्यों के हृदय में मेरा हरि-प्रभु आ बसा है मैं उनसे सदके कुर्बान जाता हूँ।3।