सोरठि महला ९ ॥
जो नरु दुख मै दुखु नही मानै ॥ सुख सनेहु अरु भै नही जा कै कंचन माटी मानै ॥१॥ रहाउ ॥ नह निंदिआ नह उसतति जा कै लोभु मोहु अभिमाना ॥ हरख सोग ते रहै निआरउ नाहि मान अपमाना ॥१॥ आसा मनसा सगल तिआगै जग ते रहै निरासा ॥ कामु क्रोधु जिह परसै नाहनि तिह घटि ब्रहमु निवासा ॥२॥ गुर किरपा जिह नर कउ कीनी तिह इह जुगति पछानी ॥ नानक लीन भइओ गोबिंद सिउ जिउ पानी संगि पानी ॥३॥११॥ {पन्ना 633}
अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य दुखों में घबराता नहीं, जिस मनुष्य के हृदय में सुखों से मोह नहीं, और (किसी किस्म का) डर नहीं, जो मनुष्य सोने को मिट्टी (के समान) समझता है (उसके अंदर परमात्मा का निवास हो जाता है)।1। रहाउ।
हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर किसी की चुगली-बुराई नहीं, किसी की खुशमद नहीं, जिसके अंदर ना लोभ है, ना मोह है, ना अहंकार है; जो मनुष्य खुशी और ग़मी से निर्लिप रहता है, जिस पर ना आदर असर कर सकता है ना निरादरी (ऐसे मनुष्य के दिल में परमात्मा का निवास हो जाता है)।1।
हे भाई! जो मनुष्य आशाएं-उम्मीदें सब त्याग देता है, जगत से निर्मोह रहता है, जिस मनुष्य को ना काम-वासना छू सकती है ना ही क्रोध छू सकता है, उस मनुष्य के दिल में परमात्मा का निवास हो जाता है।2।
(पर) हे नानक! (कह–) जिस मनुष्य पर गुरू ने मेहर की उसने (ही जीवन की) ये जाच समझी है। वह मनुष्य परमात्मा के साथ ऐसे एक-मेक हो जाता है, जैसे पानी के साथ पानी मिल जाता है।3।11।