धनासरी महला ५ ॥
जह जह पेखउ तह हजूरि दूरि कतहु न जाई ॥ रवि रहिआ सरबत्र मै मन सदा धिआई ॥१॥ ईत ऊत नही बीछुड़ै सो संगी गनीऐ ॥ बिनसि जाइ जो निमख महि सो अलप सुखु भनीऐ ॥ रहाउ ॥ प्रतिपालै अपिआउ देइ कछु ऊन न होई ॥ सासि सासि समालता मेरा प्रभु सोई ॥२॥ अछल अछेद अपार प्रभ ऊचा जा का रूपु ॥ जपि जपि करहि अनंदु जन अचरज आनूपु ॥३॥ सा मति देहु दइआल प्रभ जितु तुमहि अराधा ॥ नानकु मंगै दानु प्रभ रेन पग साधा ॥४॥३॥२७॥ {पन्ना 677}
अर्थ: हे भाई! उस (परमात्मा) को ही (असल) समझना चाहिए, (जो हमसे) इस लोक में परलोक में (कहीं भी) अलग नहीं होता। उस सुख को होछा सुख कहना चाहिए जो आँख झपकने जितने समय में ही समाप्त हो जाता है। रहाउ।
हे भाई! मैं जहाँ-जहाँ देखता हूँ वहाँ-वहाँ ही परमात्मा हाजिर-नाजर है, वह किसी भी जगह से दूर नहीं है। हे (मेरे) मन! तू सदा उस प्रभू का सिमरन किया कर, जो सब में बस रहा है।1।
हे भाई! मेरा वह प्रभू भोजन दे के (सबको) पालता है, (उसकी कृपा से) किसी भी चीज की कमी नहीं रहती। वह प्रभू (हमारी) हरेक सांस के साथ-साथ हमारी संभाल करता रहता है।2।
हे भाई! जो प्रभू छला नहीं जा सकता, नाश नहीं किया जा सकता, जिसकी हस्ती सबसे ऊँची है, और हैरान करने वाली है, जिसके बराबर का और कोई नहीं, उसके भक्त उसका नाम जप-जप के आत्मिक आनंद लेते रहते हैं।3।
हे दया के घर प्रभू! मुझे वह समझ बख्श जिसकी बरकति से मैं तुझे ही सिमरता रहूँ। हे प्रभू! नानक (तेरे पास से) तेरे संत जनों के चरणों की धूड़ मांगता है।4।3।27।