Amrit Vele Ka Hukamnama (HINDI) Gurdwara Sri Guru Singh Sabha C Block Hari Nagar – 1-11-24

धनासरी महला १ छंत ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
तीरथि नावण जाउ तीरथु नामु है ॥ तीरथु सबद बीचारु अंतरि गिआनु है ॥ गुर गिआनु साचा थानु तीरथु दस पुरब सदा दसाहरा ॥ हउ नामु हरि का सदा जाचउ देहु प्रभ धरणीधरा ॥ संसारु रोगी नामु दारू मैलु लागै सच बिना ॥ गुर वाकु निरमलु सदा चानणु नित साचु तीरथु मजना ॥१॥ साचि न लागै मैलु किआ मलु धोईऐ ॥ गुणहि हारु परोइ किस कउ रोईऐ ॥ वीचारि मारै तरै तारै उलटि जोनि न आवए ॥ आपि पारसु परम धिआनी साचु साचे भावए ॥ आनंदु अनदिनु हरखु साचा दूख किलविख परहरे ॥ सचु नामु पाइआ गुरि दिखाइआ मैलु नाही सच मने ॥२॥ संगति मीत मिलापु पूरा नावणो ॥ गावै गावणहारु सबदि सुहावणो ॥ सालाहि साचे मंनि सतिगुरु पुंन दान दइआ मते ॥ पिर संगि भावै सहजि नावै बेणी त संगमु सत सते ॥ आराधि एकंकारु साचा नित देइ चड़ै सवाइआ ॥ गति संगि मीता संतसंगति करि नदरि मेलि मिलाइआ ॥३॥ कहणु कहै सभु कोइ केवडु आखीऐ ॥ हउ मूरखु नीचु अजाणु समझा साखीऐ ॥ सचु गुर की साखी अम्रित भाखी तितु मनु मानिआ मेरा ॥ कूचु करहि आवहि बिखु लादे सबदि सचै गुरु मेरा ॥ आखणि तोटि न भगति भंडारी भरिपुरि रहिआ सोई ॥ नानक साचु कहै बेनंती मनु मांजै सचु सोई ॥४॥१॥ {पन्ना 687-688}

अर्थ: मैं (भी) तीर्थों पर स्नान करने जाता हूँ (पर मेरे वास्ते परमात्मा का) नाम (ही) तीर्थ है। गुरू के शबद को विचार-मण्डल में टिकाना (मेरे लिए) तीर्थ है (क्योंकि इसकी बरकति से) मेरे अंदर परमात्मा के साथ गहरी सांझ बनती है। सतिगुरू का दिया हुआ ये ज्ञान मेरे वास्ते सदा कायम रहने वाला तीर्थ-स्थान है, मेरे लिए दसों पवित्र दिन हैं, मेरे लिए गंगा का जन्म-दिन है। मैं तो सदा प्रभू का नाम ही माँगता हूँ और (अरदास करता हूँ-) हे धरती के आसरे प्रभू! (मुझे अपना नाम) दे। जगत (विकारों में) रोगी हुआ पड़ा है, परमात्मा का नाम (इन रोगों का) इलाज है। सदा-स्थिर प्रभू के नाम के बिना (मन को विकारों की) मैल लग जाती है। गुरू का पवित्र शबद (मनुष्य को) सदा (आत्मिक) प्रकाश (देता है, यही) नित्य सदा कायम रहने वाला तीर्थ है, यही तीर्थ स्नान है।1।

सदा-स्थिर प्रभू के नाम में जुड़ने से मन को (विकारों की) मैल नहीं लगती, (फिर तीर्थ आदि पर जा के) कोई मैल धोने की आवश्यक्ता नहीं रहती। परमात्मा के गुणों का हार (हृदय में) परो के किसी के आगे पुकार करने की भी जरूरत नहीं रहती।

जो मनुष्य गुरू के शबद के विचार द्वारा (अपने मन को विकारों की ओर से) मार लेता है, वह संसार-समुंद्र से पार लांघ जाता है, (औरों को भी) पार लंघा लेता है, वह दोबारा (के चक्कर) में नहीं आता। वह मनुष्य आप पारस बन जाता है, बड़ी ही ऊँची सुरति का मालिक हो जाता है, वह सदा-स्थिर प्रभू का रूप बन जाता है, वह सदा-स्थिर प्रभू को प्यारा लगने लग पड़ता है। उसके अंदर हर वक्त आनंद बना रहता है, सदा-स्थिर रहने वाली खुशी पैदा हो जाती है, वह मनुष्य अपने (सारे) दुख-पाप दूर कर लेता है।

जिस मनुष्य ने सदा-स्थिर प्रभू का नाम प्राप्त कर लिया, जिसको गुरू ने (प्रभू) दिखा दिया, उसके सदा-स्थिर नाम जपते मन को कभी विकारों की मैल नहीं लगती।2।

साध-संगति में मित्र-प्रभू का मिलाप हो जाना – यही वह तीर्थ-स्नान है जिसमें कोई कमी नहीं रह जाती। जो मनुष्य गुरू के शबद में जुड़ के गाने-योग्य प्रभू (के गुण) गाता है उसका जीवन सुंदर बन जाता है। सतिगुरू को (जीवन-दाता) मान के सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह करके मनुष्य की मति दूसरों की सेवा करने वाली सब पर दया करने वाली बन जाती है। (सिफत सालाह की बरकति से मनुष्य) पति-प्रभू की संगति में रह के उसको प्यारा लगने लग जाता है आत्मिक अडोलता में (मानो आत्मिक) स्नान करता है; यही उसके लिए स्वच्छ से स्वच्छ त्रिवेणी संगम (का स्नान) है।

(हे भाई!) उस सदा स्थिर रहने वाले एक अकालपुरुख को सिमर, जो सदा (सब जीवों को दातें) देता है और (जिसकी दी हुई दातें दिनो दिन) बढ़ती ही जाती हैं। मित्र-प्रभू की संगति में, गुरू-संत की संगति में आत्मिक अवस्था ऊँची हो जाती है, प्रभू मेहर की नजर करके अपनी संगति में मिला लेता है।3।

हरेक जीव (परमात्मा के बारे में) कथन करता है (और कहता है कि परमात्मा बहुत बड़ा है, पर) कोई नहीं बता सकता कि वह कितना बड़ा है। (मैं इतने लायक नहीं कि परमात्मा का स्वरूप बयान कर सकूँ) मैं (तो) मूर्ख हूँ, जीव स्वभाव का हूँ, अंजान हूँ, मैं तो गुरू के उपदेश से ही (कुछ) समझ सकता हूँ (अर्थात, मैं तो उतना कुछ ही मुश्किल से समझ सकता हूँ जितना गुरू अपने शबद से समझाए)। मेरा मन तो उस गुरू-शबद में ही पतीज गया है जो सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह करता है और जो आत्मिक जीवन देने वाला है।

जो जीव (माया-मोह के) जहर से लदे हुए जगत में आते हैं (गुरू के शबद को विसार के और तीर्थ-स्नान आदि की टेक रख के, उसी जहर से लदे हुए ही जगत से) कूच कर जाते हैं, पर जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद में जुड़ते हैं, उनको मेरा गुरू उस जहर के भार से बचा लेता है।

(परमात्मा के गुण बेअंत हैं, गुण) बयान करने से खत्म नहीं होते, (परमात्मा की भक्ति के खजाने भरे पड़े हैं, जीवों को भक्ति की दाति बाँटने से) भक्ती के खजानों में कोई कमी नहीं आती, (पर भगती करने से प्रभू की सिफत सालाह करने से मनुष्य को ये यकीन हो जाता है कि) परमात्मा ही हर जगह व्यापक है। हे नानक! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभू का सिमरन करता है, जो प्रभू-दर पर अरदासें करता है (और इस तरह) अपने मन को विकारों की मैल से साफ कर लेता है उसे हर जगह वह सदा-स्थिर प्रभू ही दिखता है (तीर्थ-स्नानों से यह आत्मिक अवस्था प्राप्त नहीं होती)।4।1।

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