सोरठि महला ९ ॥
मन रे कउनु कुमति तै लीनी ॥ पर दारा निंदिआ रस रचिओ राम भगति नहि कीनी ॥१॥ रहाउ ॥ मुकति पंथु जानिओ तै नाहनि धन जोरन कउ धाइआ ॥ अंति संग काहू नही दीना बिरथा आपु बंधाइआ ॥१॥ ना हरि भजिओ न गुर जनु सेविओ नह उपजिओ कछु गिआना ॥ घट ही माहि निरंजनु तेरै तै खोजत उदिआना ॥२॥ बहुतु जनम भरमत तै हारिओ असथिर मति नही पाई ॥ मानस देह पाइ पद हरि भजु नानक बात बताई ॥३॥३॥ {पन्ना 631-632}
अर्थ: हे मन! तूने कैसी कुबुद्धि ले ली है? तू पराई स्त्री, पराई निंदा के रस में मस्त रहता है। परमात्मा की भक्ति तूने (कभी) नहीं की।1। रहाउ।
हे भाई! तूने विकारों से खलासी पाने का रास्ता (अभी तक) नहीं समझा, धन एकत्र करने के लिए तू सदा दौड़-भाग करता रहा है। (दुनिया के पदार्थों में से) किसी ने भी आखिर में किसी का साथ नहीं दिया। तूने व्यर्थ ही अपने आप को (माया के मोह में) जकड़ रखा है।1।
हे भाई! (अभी तक) ना तूने परमात्मा की भक्ति की है, ना गुरू की शरण पड़ा है, ना ही तेरे अंदर आत्मिक जीवन की सूझ आई है। माया से निर्लिप प्रभू तेरे हृदय में बस रहा है, पर तू (बाहर) जंगलों में उसे तलाश रहा है।2।
हे भाई! अनेकों जन्मों में भटक-भटक के तूने (मनुष्य जन्म की बाजी) हार ली है, तूने ऐसी अक्ल नहीं सीखी जिसकी बरकति से (जन्मों के चक्करों में से) तुझे अडोलता हासिल हो सके। हे नानक! (कह– हे भाई! गुरू ने तो ये) बात समझाई है कि मानस जन्म का (ऊँचा) दर्जा हासिल करके परमात्मा का भजन कर।3।3।