जैतसरी महला ५ वार सलोका नालि ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोक ॥
आदि पूरन मधि पूरन अंति पूरन परमेसुरह ॥ सिमरंति संत सरबत्र रमणं नानक अघनासन जगदीसुरह ॥१॥ पेखन सुनन सुनावनो मन महि द्रिड़ीऐ साचु ॥ पूरि रहिओ सरबत्र मै नानक हरि रंगि राचु ॥२॥ पउड़ी ॥ हरि एकु निरंजनु गाईऐ सभ अंतरि सोई ॥ करण कारण समरथ प्रभु जो करे सु होई ॥ खिन महि थापि उथापदा तिसु बिनु नही कोई ॥ खंड ब्रहमंड पाताल दीप रविआ सभ लोई ॥ जिसु आपि बुझाए सो बुझसी निरमल जनु सोई ॥१॥ {पन्ना 706} {पन्ना 705-706}
अर्थ: संत जन उस सर्व-व्यापक परमेश्वर को सिमरते हैं जो जगत के शुरू से हर जगह मौजूद है, अब भी सर्व व्यापक है और आखिर में भी हर जगह हाजर-नाजर रहेगा। हे नानक! वह जगत का मालिक प्रभू सब पापों को नाश करने वाला है।1।
उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू को मन में अच्छी तरह धारण करना चाहिए जो (हर जगह) खुद ही देखने वाला है, खुद ही सुनने वाला है और खुद ही सुनाने वाला है। हे नानक! उस हरी की प्यारी याद में लीन हो जा जो सब जगह मौजूद है।2।
अर्थ: जो प्रभू माया से निर्लिप है सिर्फ उसकी ही सिफत सालाह करनी चाहिए, वही सबके अंदर मौजूद है। वह प्रभू सारे जगत का मूल है, सब किस्म की ताकत वाला है, (जगत में) वही कुछ होता है जो वह प्रभू करता है। एक पलक में (जीवों को) पैदा करके नाश कर देता है, उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं है। सब देशों में, सारे ब्रहमण्ड में, जमीन के नीचे, द्वीपों में, सारे जगत में वह प्रभू व्यापक है।
जिस मनुष्य को (ये) समझ खुद प्रभू देता है, उसे समझ आ जाता है और वह मनुष्य पवित्र हो जाता है।1।