बिलावलु महला ५ ॥
पाणी पखा पीसु दास कै तब होहि निहालु ॥ राज मिलख सिकदारीआ अगनी महि जालु ॥१॥ संत जना का छोहरा तिसु चरणी लागि ॥ माइआधारी छत्रपति तिन्ह छोडउ तिआगि ॥१॥ रहाउ ॥ संतन का दाना रूखा सो सरब निधान ॥ ग्रिहि साकत छतीह प्रकार ते बिखू समान ॥२॥ भगत जना का लूगरा ओढि नगन न होई ॥ साकत सिरपाउ रेसमी पहिरत पति खोई ॥३॥ साकत सिउ मुखि जोरिऐ अध वीचहु टूटै ॥ हरि जन की सेवा जो करे इत ऊतहि छूटै ॥४॥ सभ किछु तुम्ह ही ते होआ आपि बणत बणाई ॥ दरसनु भेटत साध का नानक गुण गाई ॥५॥१४॥४४॥ {पन्ना 811}
अर्थ: हे भाई! जो गुरमुख मनुष्यों का नौकर हो, उसके चरणों में लगा कर। (हे भाई!) मैं तो (जो) बड़े-बड़े धनाढ राजे (हों) उनका साथ छोड़ने को तैयार होऊँगा (पर संतजनों के सेवकों के चरणों में रहना पसंद करूँगा)।1।
हे भाई! प्रभू के भगत के घर में पानी (ढोया कर), पंखा (फेरा कर), (आटा) पीसा) कर, तब ही तू आनंद भोगेगा। दुनियाँ की हकूमतें, जमीनों की मल्कियत, सरदारियाँ – इन को आग में जला के (इन का लालच छोड़ दे)।1।
हे भाई! गुरमुखों के घर की रूखी रोटी (अगर मिले तो उसको दुनिया के) सारे खजाने (समझ)। पर परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य के घर में (यदि) कई किस्म के भोजन (मिलें, तो) उसे जहर जैसा समझ।2।
हे भाई! प्रभू की भक्ति करने वाले मनुष्यों से अगर फटा हुआ कपड़े का टुकड़ा भी मिल जाए, तो उसे पहन के नंगा होने का डर नहीं रहता। प्रभू से टूटे हुए मनुष्य से अगर रेशमी सिरोपा भी मिले, उसके पहनने से अपनी इज्जत गवा लेते हैं।3।
हे भाई! परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य से मेल-जोल रखने से वह मेल-जोल (सिरे नहीं चढ़ता) अध-बीच में ही टूट जाता है। जो मनुष्य प्रभू की भक्ति करने वाले बंदों की सेवा करता है, वह इस लोक में भी और परलोक में भी (झगड़ों-बखेड़ों से) बचा रहता है।4।
(पर, हे प्रभू! जीवों के भी क्या वश? जीवों का ) हरेक काम तेरी प्रेरणा से ही होता है। तूने स्वयं ही ये सारी खेल रची हुई है। हे नानक! (अरदास कर, और कह- हे प्रभू! मेहर कर) मैं गुरू के दर्शन करके (गुरू की संगति में रह के सदा) तेरे गुण गाता रहूँ।5।14।44।