सोरठि महला ३ ॥
सो सिखु सखा बंधपु है भाई जि गुर के भाणे विचि आवै ॥ आपणै भाणै जो चलै भाई विछुड़ि चोटा खावै ॥ बिनु सतिगुर सुखु कदे न पावै भाई फिरि फिरि पछोतावै ॥१॥ हरि के दास सुहेले भाई ॥ जनम जनम के किलबिख दुख काटे आपे मेलि मिलाई ॥ रहाउ ॥ इहु कुट्मबु सभु जीअ के बंधन भाई भरमि भुला सैंसारा ॥ बिनु गुर बंधन टूटहि नाही गुरमुखि मोख दुआरा ॥ करम करहि गुर सबदु न पछाणहि मरि जनमहि वारो वारा ॥२॥ हउ मेरा जगु पलचि रहिआ भाई कोइ न किस ही केरा ॥ गुरमुखि महलु पाइनि गुण गावनि निज घरि होइ बसेरा ॥ ऐथै बूझै सु आपु पछाणै हरि प्रभु है तिसु केरा ॥३॥ सतिगुरू सदा दइआलु है भाई विणु भागा किआ पाईऐ ॥ एक नदरि करि वेखै सभ ऊपरि जेहा भाउ तेहा फलु पाईऐ ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि विचहु आपु गवाईऐ ॥४॥६॥ {पन्ना 601-602}
अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। परमात्मा स्वयं उनके जनम मरण के दुख-पाप काट देता है, और उन्हें अपने चरणों में मिला लेता है। रहाउ।
हे भाई! वही मनुष्य गुरू का सिख है, गुरू का मित्र है, गुरू का रिश्तेदार है, जो गुरू की रजा में चलता है। पर, जो मनुष्य अपनी मर्जी के मुताबक चलता है, वह प्रभू से विछुड़ के दुख सहता है। गुरू की शरण पड़े बिना मनुष्य कभी सुख नहीं पा सकता, और बार बार (दुखी हो के) पछताता है।1।
हे भाई! (गुरू की रजा में चले बिना) ये (अपना) परिवार भी जीव के लिए निरा मोह का बंधन बन जाता है, (तभी तो) जगत (गुरू से) भटक के गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। गुरू की शरण आए बिना ये बंधन टूटते नहीं। गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य (मोह के बंधनों से) निजात पाने का राह तलाश लेता है। जो लोग निरे दुनिया के काम-धंधे ही करते हैं, और गुरू के शबद के साथ सांझ नहीं डालते, वे बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं।2।
हे भाई! ‘मैं बड़ा हूँ’, ‘ये धन आदि मेरा है’ – इसमें ही जगत उलझा हुआ है (वैसे) कोई भी किसी का (सदा साथी) नहीं बन सकता। गुरू की शरण पड़ने वाले मनुष्य परमात्मा की सिफत सालाह करते हैं, और परमात्मा की हजूरी प्राप्त किए रहते हैं, उनका (आत्मिक) निवास प्रभू चरणों में हुआ रहता है। जो मनुष्य इस जीवन में ही (इस भेत को) समझ लेता है, वह अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है (आत्म चिंतन करता है), परमात्मा उस मनुष्य का सहायक बना रहता है।3।
हे भाई! गुरू हर समय ही दयावान रहता है (माया-ग्रसित मनुष्य गुरू की शरण नहीं आता) किस्मत के बिना (गुरू से) क्या मिले? गुरू सबको एक प्यार की निगाह से देखता है। (पर हमारी जीवों की) जैसी भावना होती है वैसा ही फल (हमें गुरू से) मिल जाता है। हे नानक! (अगर गुरू की शरण पड़ के अपने) अंदर से स्वै भाव दूर कर लें तो परमात्मा का नाम मन में आ बसता है।4।6।